व्यथा पहाड़ों की: श्मशान से लेकर मधुशाला तक चुनावी गणित का शोर,पहाड़ की समस्याओं के असली मुद्दे गायब

* पलायन व शराब ने खोखला कर डाला है पहाड़

हल्द्वानी/ उत्तराखण्ड- चुनावी रुत की बेला उत्तराखण्ड में समाप्त होनें के बाद इन दिनों आकड़ो की परिचर्चा अपने पूरे यौवन पर है। चुनावों से पूर्व वादों की लम्बीं झड़ियां मतदाताओं पर जमकर बरसी है। विभिन्न राजनीतिक दल चुनावी मोर्चे पर पूरे जोश खरोस के साथ अपना बल लगाने के बाद अपने अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं इस बार के चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए वायदों की डगर जोर शोर के साथ शोरगुल की बीन ज्यादा नहीं बजा पाई आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला भी कम रहा। लेकिन मधुशाला से लेकर श्माशान भूमि चुनावी चर्चों से अछूती नही रही । राज्य का हर क्षेत्र लोकतन्त्र के महापर्व के रंग में रगकर अब परिणाम की प्रतीक्षा में है ।चुनावी समर में उतरे योद्वाजन अब आम मतदाताओं की खामोशी को भापनें का भरसक प्रयास कर रहे है। और अपनी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं चुनाव लोकतन्त्र के महापर्व का परम आधार है। देश की आजादी के पश्चात् भारत भूमि में चुनावों ने लम्बीं यात्रा तय की है। वर्ष 1951-52 के चुनावों में आम मतदाताओं की संख्या आज विराट संख्या में तब्दील हो चुकी है। मतपत्रों का स्थान इलैक्द्रानिक वोटिग मशीनों ने ले लिया है। मतदाताओं की विराट संख्या के चलते चुनावी फिजायें चरणबद्व तरीकों में तब्दील हो हुई है। जवाहर लाल नेहरु से लेकर वर्तमान प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी तक के बीच के चुनावी समर में 1957 में 1962 तक के सफर में प० जवाहर लाल नेहरु, गुलजारी लाल नन्दा, लालबहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी ने देश की कमान सभाली आगे 67 -71 में इंदिरा गाधी तो 1977 में जनता पार्टी के मोरारजी देसाई, चरण सिंह के बाद इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर सिह के पश्चात् समय के बढ़ते क्रम में पी० वी० नरसिहमां राव, अटलविहारी बाजपेयी, एच० डी० देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल, फिर अटल जी व आगे चलकर फिर मनमोहन सिंह ने देश की बागडोर संभाली, बाद में देश की जनता ने यह कमान नरेन्द्र मोदी को दी और वे वर्तमान में देश की बागडोर सभांले हुए है। आगे की स्थिति समय के गर्भ में समाहित है। समय के चलते चक्रव्यूह में आजादी के लम्बित वर्षों बाद पहाड़ों की समस्यायें यथावत है, इन समस्याओं के निदान का ऐजड़ा धरातल पर किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है हां वायदों का अम्बार व आश्वासनों की झड़ी जरुर है। गौरतलब है, कि पलायन से पहाड़ की संस्कृति खतरे में पड़ गई है।गाँव के गाँव वीरानें की ओर अग्रसर है।रोजगार के अभाव में युवाओं का रुख शहरी क्षेत्रों की ओर होनें से पहाड़ की जवानी अब पहाड़ की वादियों को छोड़ते जा रही है।अनियोजित व अनियन्नित विकास व वनों के अधांधुध दोहन से पहाड़ की पीड़ा विकट रुप धारण करते जा रही है। इस कारण भी गाँव के गॉव खाली होते जा रहे है। राज्य में अभी भी अनेक स्थानों पर लोग नदियां पार करने के लिए रस्सियों या झूला पुलों का सहारा लेते हैं। इस तरह की अनेक समस्याओं के समाधान के नाम पर बोट मागें जाते रहे है ।लेकिन समस्यायें घटनें के बजाय बढ़ती रही और पहाड़ के पहाड़ खाली होते चले गये। चुनावी रुते आती रही व जाती रही । विकास के नाम पर दूरस्थ क्षेत्र पिछड़ते गये।और लोग धीरे धीरे मैदानी क्षेत्रों की ओर बसते चले गये आज कई गांव विराने हो गये है। उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण ही यहां पर अछूते विकास को आगे बढ़ाना था लेकिन यहां पर विकास के नाम पर विनाश हो रहा हैै।और गांव के गांव खाली होते जा रहे है। जिस कारण देवभूमि प्रलयंकार दुर्दशा से जूझ रही है। हिमालयी भूमि के साथ छेड़छाड़ मानव जाति को महंगी पड़ सकती है। भयावह तस्वीरें इसी बात की ओर इशारा करती हैं। राजनीतिज्ञों, माफिया, नौकरशाहों तथा ठेकेदारों की अपवित्र गठजोड़ ने सुनहरी घाटियों को कंक्रीट के जंगलों में तब्दील करके रख दिया है जिसके चलते वन्य जीव-जन्तुओं की प्रजातियां दिन पर दिन घटती जा रही है। पहाड़ के धुर पिछड़े गांवों की तकदीर व तस्वीर नहीं बदल पायी है। विकास की रोशनी तक को तरसते इन गांवों की खौफनाक त्रासदी तो यह है कि आज इनकी गांव-ब्लाक की नुमान्दगी भी शहरी ठाठ-बाट में कैद हो चली है। हालत यह है कि प्रधानी से लेकर क्षेत्र व जिला पंचायत तक के अधिसंख्य प्रतिनिधि आज शहरों में इन गांवों की लड़ाई लड़ रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे पूर्व में लखनऊ में बैठे खैर-ख्वाह अब देहरादून में सुध लेने लगे हैं।कुछ नया हो न हो, इस नव सृजित उत्तराखण्ड में यह नयी संस्कृति जरूर पैदा हो गयी। विकास की रोशनी तक को तरसते हजारों गांवों की ओर निकले कदम पलायन से आज शहरी चकाचौंध की ओर मुड़ गये हैं। लेकिन ये तमाम मुद्दे चुनावी ऐजडे से गायब है। देवात्मा हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड़ जहां की पावन तीर्थ स्थलों की लम्बीं श्रृखंला है इन दिनों नशे का कारोबार चरम पर है।जगह जगह से आये दिन नशीले पदार्थों की तस्करी व उन पर अकुंश लगाये जानें की मांग चरम पर है।चोरी छिपे बिक रहे नशीले पदार्थों ने युवक युवतियों को ही नहीं बल्कि मासूम छात्र छात्राओं को भी धीरे धीरे चपेटना शुरु कर दिया है। नशे का कारोबार तीब्र गति के साथ अपनी जड़े जमाता जा रहा है।जिस कारण देवात्मा उत्तराखण्ड का देवत्व खतरे में पड़ गया है।यह मुद्दा भी धरातल से बाहर है।जिस तेजी से नशे का प्रचलन बढ़ा है।उससे यहां का चिन्तनशील वर्ग चिन्ता में पड़ गया है।मातृ शक्ति झकझोर हो उठनें लगी है।वातावरण की शान्ति कलह रुपी जहर घुलता जा रहा है।धरातल की हकीकत तो यह है।अपने समाज व संस्कृति पर मर मिटने वाले लोगों के वशंज मासूम अवस्था से ही नशे के आगोश में पड़कर शरीर व आत्मा दोनों से खोखले होते जा रहे है।
पर्वतीय महिलाओं का जीवन जिस मानवजनित आपदा से सबसे ज्यादा तहस- नहस हुआ है, उसमें शराब की भूमिका सबसे मुख्य है। महिलाओं के समक्ष तमाम समस्याओं के बीच शराब पूर्व से ही किसी आपदा से कम नहीं थी,अब विभिन्न प्रकार के नशीले पदार्थों के बढ़ते प्रचलन से वे झकझोर हो उठी है। हाल के दशकों में यह एक लाई लाज बीमारी बनकर महिलाओं के अस्तित्व के लिए एक भयावह चुनौती बन कर खड़ी है।
अगर किसी भी परिवार में मद्यपान करने वाला चाहे पति हो, पुत्र हो, भाई हो या फिर पिता हो, इस बुराई का सर्वाधिक नुकसान सम्बन्धित परिवार की महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। ऐसे परिवारों की महिलाओं का जीवन जहां शराब ने नरक बना डाला है वहीं अन्य नशीले पदार्थों की बढ़ोतरी से वे टूटन के कगार पर है।ऐसे परिवार प्रगति की राह में काफी पीछे रह गये हैं। अपनी बरबादी को रोकने तथा पुरुषों की शराबखोरी से निजात पाने के लिए पहली बार सत्तर के दशक में महिलाओं की छटपटाहट सीधे प्रतिकार के रूप में सामने आई और महिलाएं शराब बिरोधी मुहिम में जुटने लगी। 1980 के दशक में ’नशा नहीं रोजगार दो’ का नारा समूचे पर्वतीय अंचल में गूंज उठा।
राजस्व की बात करने वाले शियासी दलों तथा सरकारों को शराब से हो रही पहाड़ की बरबादी कभी नहीं दिखाई दी। नशे के बढ़ते प्रभाव से यहां के समृद्ध सांस्कृतिक मूल्य, स्वस्थ व सौहार्दपूर्ण जीवन शैली, सामाजिक व आर्थिक ढॉचा सब कुछ तहस- नहस होता चला गया। युवा पीढ़ी में स्वास्थ्य का गिरता ग्राफ चिन्ताजनक स्तर तक पहुंच गया। सामूहिक जन आक्रोश को देखते हुए बेशक तत्कालीन सरकार ने कुछ समय के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में ड्राई एरिया घोषित किया परन्तु उस दौरान शराब तस्करी चरम पर पहुंच गयी, पहाड़ के चन्द तश्कर रातों- रात धन्ना सेठ बन गये जिसने एक नई आर्थिक विषमता को जन्म दिया।
सरकारों की अव्यावहारिक एवं जनविरोधी नीतियों के चलते उत्तराखण्ड में जहां जंगल व जमीनों पर माफिया काबिज होते चले गये वहीं यहां के जल स्रोत सूखने से पशुपालन व अन्य परम्परागत व्यवसाय प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप बेराजगारी का भयावह चेहरा सामने आया। उस पर शराब व अन्य नशे की सामग्री की कुसंस्कृति ने पहाड़ के शान्त व सुखद वातावरण में जहर घोल दिया। यह समस्या आज भी समस्या है।

– रमाकान्त पन्त,हल्द्वानी

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