शिक्षा:अगर सही हो नीति तो सुधर जायें आधी समस्याएं

बहुत बड़े बहस के मुद्दे को छेड़ रहा हूँ मगर असल में लोगों ने इस मुद्दे पर ध्यान ही नही दिया है।आज देश में नीति नियमों के अनदेखी पर विचार रख रहा हूँ।
हमारे देश में शिक्षा की जहां तक बात करूं बहुत लचरता है। जिस देश की शिक्षा प्रणाली सही हो आधा देश तो वैसे ही सुधर जाता है। एक जमाना था जब मेरे उत्तराखंड में उत्तरप्रदेश के शिक्षक थे सब के बच्चे वहीं स्कूल में पढ़ते थे। चाहे स्कूल दुर्गम हो या सुगम। जहां मम्मी पापा शिक्षक थे वहीं बच्चे स्वाध्याय करते थे। मगर आज आलम यह नही है। जहां अध्यापक या अध्यापिका जी है वहां उन के बच्चे नही पढ़ते है। हो सकता है उन शिक्षक माता पिता को अपनी काबलियत पर कोई संदेह है। हो सकता है कि उन अभिभावकों को सरकारी तंत्र पर विश्वास न हो। उन को भलीभांति पता है कि आखिर किस स्तर की शिक्षा देती है सरकार। या फ़िर अपने स्कूल की शिक्षा नीतियों पर कोई आपत्ति। खैर बात यहीं नही रुकती है। अगर वो अध्यापक या अध्यापिका इस लायक नहीं कि अपने बच्चों को पढा सके तो सोचो जिन बच्चों को हम उन की छाया में भेज रहे है उन का जीवन कैसे सुधरेगा जिस व्यक्ति को खुद की काबलियत पर विश्वास नही वो किसी अन्य बच्चे के दिल में कैसे विश्वास उत्पन्न करेगा।

बात यहीं न रुकी उन्हीं अध्यापकों में 80% कोचिंग सेन्टर चला रहे है ट्यूशन क्लासेस चला रहे है। यह शायद धन अर्जन है ज्ञान वितरण नही। शिक्षा व्यवसाय है स्वाध्याय नही। कहते है अध्यापक,अध्याय,अध्यापन सही हो तो शिक्षा की गुणवत्ता सुधरती है। चरित्रवान समाज का निर्माण यहीं से होता है।

जिस प्रदेश में जितनी गैर सरकारी शिक्षण संस्थान है समझो वहां की प्रदेश सरकारें शिक्षा नीतियों में विफल रही है। उस प्रदेश के सरकारों ने शिक्षा का व्यवसायीकरण किया। गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मिल कर शिक्षा की नींव खोदी औऱ अपने अनुकूल बनाया विद्यार्थियों को। जानबूझकर सकरारी धन का दुरुपयोग हुआ।

विकसित देशों में गैरसरकारी शिक्षण संस्थानों के लिए भी सरकारी मानक है और एक तय सीमा है कि कितने गैरसरकारी संस्थान खुल सकते है। उन की शिक्षा गुणवत्ता व सुख सुविधाओं पर सरकार की पैनी नजर होती है। सभी नियम कानून सरकार बनाती है। मगर भारत जैसे देश में एनसीआरटी लागू होने में ही आंदोलन शुरु हो जाता है। वो लोग उस NCERT का विरोध करते है जो उसी NCERT को पढ़ के शिक्षक बने है।

सरकारी नीतिशास्त्र-:
हमारा देश हर वर्ष हजारों बच्चों को विदेश में पढाई के लिए भेजता है। यूके में 6000 यूएस में 5000 बच्चे हर साल शिक्षा ग्रहण करने जाते है। जिसका खर्चा सरकार वहन करती है। और कानून यह है कि वो बच्चे कम से कन 4 साल भारत सरकार के लिए अपनी सेवा देंगे मगर हाल की रिपोर्ट है कि मात्र 9% बच्चे ही देश को अपनी सेवा देते है बाकी या तो लौटते ही नही या फिर किसी गैरसरकारी संस्थान में अपनी सेवा देते है और इस तरह से देश के धन को चूना लगता है।

सरकारें IIM, IIT, जैसी संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों को आर्थिक मदद करती है। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे देश के धन पर शिक्षित होते है मगर IIT,IIM के बाद वो देश के लिए नही गैरसरकारी कंपनियों के साथ मिलते है और इस तरह देश में अच्छे कामगारों की कमी है। आज देश में अभियंताओं की किल्लत है। आईएएस , आईपीएस , आईएफएस जैसे प्रतिष्ठित पदों पर भी पद खाली है।सरकारों के पास सरकारी वकील जज डॉ नही है। क्यों कि प्राइवेट में पैसा ज्यादा है। और गैरसरकारी संस्थान पैसे के साथ साथ सुख सुबिधा भी देती है।

जिस तरह से सरकारी योजनाओं का निजीकरण हो रहा है उस हिसाब से लगता है कि देश चलाने के लिए किसी इस्टइंडिया कम्पनी को फिर से आना पड़ेगा। क्या प्रदेश सरकारों के पास हुनरमंद स्टॉफ नही है पैसा सरकार का jee,aee सरकारी exen सरकारी फ़िर ठेकेदार क्यों गैरसरकारी क्या सरकारी मुलाजिम काम नही कर सकते क्या। वर्ष 1980 से पहले सड़कें नही बनी या अन्य सरकारी योजना नही बनी क्या।

जिस तरह से लालकिला प्राइवेट हाथों में गया संचार विभाग गैरसरकारी हो चुका है रेल आरक्षण गैरसरकारी हो चुका है समूचे देश में गैस, कोयला,खनन उद्योग,वन,शिक्षा,स्वास्थ्य, गैरसरकारी हो चुका है एक दिन वह भी आएगा जब संसद भवन भी गैरसरकारी हो चुका होगा।
हमारे देश में मौजूदा स्थिति में 1 करोड़ 27 लाख 391 एनजीओ है। जो सरकारी धन से चलते है। अब सोचो क्या सरकारें इतनी बिफक्र हो चुकी है कि किस non government organization के कुटम्ब को पाल रही है। हर विधायक,सांसद व multinational compny का एनजीओ है जो शुद्ध मुनाफ़े का 1.5% csr फंड को ठिकाने लगाते है। यह जन कल्याण का धन जरूरतमंद को नही पंहुंच पाता है और फ़िर जहां खड़े थे वहीं मिलते है गरीब निर्धन।

भारत में उच्चशिक्षा के लिए नेपाल से 2000 भूटान से 2500 से बच्चे शिक्षा ग्रहण करने आते है यह सब बच्चे छात्रवृत्ति पाते है। 70% भारत सरकार व 30% खर्चा उन का देश उठाता है। हर बच्चे को प्रमाणपत्र उन के देश में दिया जाता है अगर वह बच्चा वापस नही लौटा तो उस की नागरिकता ख़त्म औऱ जुर्माना की रक़म भी लगाई जाती है। जब यह कानून अविकसित देशों में है तो विकासशील देश भारत में क्यों नही। क्यों हमारे हुनरमंद लोगों को अमरीका ले जाता है। अगर निजीकरण को खत्म कर लिया गया तो समझो आरक्षण जैसा मुद्दा अपने आप खत्म हो जाएगा। क्यों कि हर विद्यार्थी को सरकारी नौकरी मिलना जरूरी है। मगर हर 6 महीने या 1 साल में साक्षात्कार भी जरूरी है। प्रस्तुति के आधार पर पदोन्नति होगी तो कूड़ा छंटने में वक्त नही लगेगा। जो मुनाफ़ा बिचौलियों की जेबों में जाता है वह सरकार के कोष में आएगा तो देश उन्नति की कार्य भी होंगे वर्ना अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ रही है जिस से अराजकता आएगी।

साभार – देवेश आदमी,उत्तराखंड

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