उत्तराखंड!पहाड़ियों तय करो, गैरसैंण चाहिए या सहारनपुर

उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल- पौड़ी गढ़वाल के अस्वालस्यूं के तोलबाड़ी गांव के 85 वर्षीय वासवानंद मिश्रा पिछले सप्ताह अपने गांव गये। वासवानंद मिश्रा अपने बेटे के साथ अब देहरादून रहते हैं। जब वह गांव से लौट रहे थे तो उनकी आंखों से गंगा-जमुना की धारा बह रही थी। वो रोते हुए कह रहे थे कि अब वो गांव नहीं लौट पाएंगे। यह पहाड़ की माटी से दूर होने की पीड़ा ही थी और गांव से नाता टूटने की आशंका। वासवानंद का पूरा जीवन गांव में बीता। सरासू गांव के स्कूल के हेडमास्टर थे। तीन दशक गांव में पढ़ाया, लेकिन जब जीवन की सांध्यवेला आई तो न चाहते हुए भी गांव छोड़ना पड़ा।

वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला जी भी पौड़ी के हैं। जब दस साल से कम आयु के थे तो बेहतर शिक्षा और भविष्य के सवाल को दिल्ली चले गये। जब वो दिल्ली जा रहे थे तो उनकी दादी गांव की पगडंडी पर उनका हाथ थामे सड़क तक विदा करने आई। पोते ने महसूस किया कि दादी की आंखों से टप-टप बहते आंसुओं से उनका हाथ भीग गया है। वह दादी के चेहरे से बहते आंसुओं को उस समय नहीं पोंछ सके और न ही जीवन भर, लेकिन गुणानंद जखमोला जी को उस छोटी सी उम्र की याद आज भी सालती है और दादी का आंसुओं से भीगा चेहरा भुलाए नहीं भूला। यदि गांव में बेहतर सुविधाएं होती तो उन्हें दिल्ली नहीं जाना पड़ता।

रुद्रप्रयाग निवासी भरतू की ब्यारी को बड़ा शौक था गांव से शहर जाने और वहां की चहल-पहल देखने का। भरतू दिल्ली के होटल में वेटर की नौकरी करता है। ब्यारी की जिद पर भरतू उसे दिल्ली ले गया। वहां भरतू की ब्यारी ने देखा, भरतू दस से 12 घंटे नौकरी करता है, छोटी सी खोली में रहता है। कमरे में आदमी घुसते ही कमरा खत्म हो जाता है। पूरी पगार के बावजूद पिछले दो साल में भरतू उसे लाल किला ही घुमा पाया। माॅल में जाकर फिल्म भी नहीं देख पाया। अब भरतू की ब्यारी अपने को कोस रही है कि इससे अच्छा तो अपना गांव था। लोगों की अथाह भीड़ में दिन-रात का चैन खो गया। वह अब गांव लौटना चाहती है।

ये तीनों कहानी सच हैं और हमारे आज जीवन से जुड़ी हुई हैं। पहाड़ से पहचान है और मैदानों में इन्सानों का खो जाना। पलायन की पीड़ा के गर्भ से उभरे राज्य के हालात अब भी नहीं बदले हैं। आज भी पहाड़ के लोगों को गांव छोड़ना पड़ रहा है और अपनी माटी, अपनी धरती और अपनी थाती से नाता तोड़ना पड़ रहा है, महज दो वक्त की रोटी के लिए। सवाल नहीं है कि कौन कैसी रोटी खा रहा है। हैसियत की रोटी हो सकती है। कुछ पहाड़ियों ने तरक्की की तो उनको चुपड़ी रोटी मिल रही होगी और बाकी सूखी खा रहे होंगे। लेकिन दोनों वर्गों की मैदानों में क्या पहचान है? पहाड़ी, पहाड़ी और सिर्फ पहाड़ी। नंगा सच यही है कि मैदानों ने हमें नहीं अपनाया। हम आज भी मैदानों के लिए पहाड़ी हैं और यही हमारी पहचान है।

मेरा एक दोस्त मुंबई में है। उसके पिता ने वहां घर बना लिया, लेकिन पिछले दिनों उन्हें डोमिसाइल बनाने के लिए गांव ही आना पड़ा। 50 वर्ष से भी अधिक समय से उनका परिवार मुंबई में रहता है वह और उसके बच्चे मराठी बोलते हैं, मराठी पढ़ते हैं, लेकिन महाराष्ट्र ने उन्हें नहीं अपनाया। सोचो, पहाड़ियो आखिर क्यों? यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि देश भर में जब ईमानदारी और मेहनत की मिसाल दी जाती है तो कहा जाता है कि पहाड़ी और नेपाली बहुत ईमानदार और मेहनती होते हैं। हम बहुत अच्छे माने जाते हैं लेकिन जब हमारा अपना राज्य बना तो क्या इतने अच्छे हम सब अपने राज्य के लिए साबित हुए? नहीं। हममें से जिसको मौका मिला उसने इस राज्य और इसके संसाधनों को लूटने की कोशिश की। हड़ताल की तो वेतन बढ़ाने के लिए। धरना दिया तो अपना अधिकार पाने के लिए, लेकिन कर्तव्य सब भूल गये।

सब विधायक, मंत्री, सीएम, पीएम और नेता बनना चाहते हैं। पहाड़ का सच्चा नागरिक नहीं। यही कारण है कि नेताओं को हमारी कमजोरी का अहसास हो गया और वो मैदानों से चुनाव जीतने लगे। जब पहाड़ का नेता मैदान से चुनाव जीत जाता है तो बताओ पहाड़ चढ़ेगा कौन? इसलिए जो नेता पहाड़ के हैं वो भी मैदान की बात करने लगे हैं। इसलिए सहारनपुर जिले के 7 लाख 58 हजार लोगों की भावना पहाड़ के एक करोड़ आठ लाख से अधिक लोगों की भावना पर भारी पड़ गई है। रमाशंकर कौशिक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सर्वे में उत्तराखंड के 66 प्रतिशत से भी अधिक लोगों ने गैरसैंण को राजधानी बनाने की बात कही, लेकिन नेताओं ने तीन प्रतिशत वाले सहमति वाले देहरादून को राजधानी बनाने का खेल खेला और अब स्वच्छ और सुंदर शहर नरक का द्वार बन गया है। 3860 वर्ग किलोमीटर में फैला सहारनपुर का देवबंद, गंगोह, बेहट जैसे शहर व कस्बों से हमारे प्रदेश में नकली मावा, घी, तेल, पनीर, मसाले समेत अधिकांश माल की खपत होती है।

सात लाख की आबादी में से आधे से अधिक लोगों का काम टैक्स चोरी और बिजली चोरी है। बाकी बचे-खुचे लोग घरों में चोरी करते हैं और जो फिर भी बच जाते हैं वो दंगे करते हैं। सहारनपुर में हर साल दो दर्जन से भी अधिक दंगों के मामले सामने आते हैं। इसकी तुलना में पूरे उत्तराखंड में दो-तीन दंगे भी नहीं होते। सहारनपुर यदि उत्तराखंड में शामिल होता है तो संसदीय क्षेत्र होने के कारण यहां एक सांसद तो बढ़ जाएगा, लेकिन विधानसभा की 9 सीटें सीधे तौर पर सहारनपुर को मिलेंगी तो तय रहा कि उत्तराखंड में बीएसपी या समाजवादी पार्टी की ही सरकार होगी। तो फिर हम उत्तर प्रदेश से अलग ही क्यों हुए। यूपी के समय का हिल डिवेलपमेंट काउंसिल ठीक ही था और तब पलायन इतनी तेज नहीं हुआ था।

स्पष्ट है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी संस्कृति-सभ्यता और पहाड़ को जिंदा रखने के लिए हमें सहारनपुर नहीं गैरसैंण चाहिए। स्थायी राजधानी गैरसैंण हो, इसके लिए संकल्प चाहिए। भीष्म प्रतिज्ञा चाहिए, नहीं तो एक दिन कोई नेता कहेगा, क्यों जाएं हम बदरीनाथ और केदारनाथ। वहां बंदरों का राज है, बदरीनाथ और केदारनाथ को हरिद्वार में बना देते हैं। इतिहास तो वही कहेगा जो दिखेगा। तो जागो, उठो और आवाज बुलंद करो, गैरसैंण स्थायी राजधानी के लिए, अपने स्वाभिमान के लिए।

-इन्द्रजीत सिंह असवाल,पौड़ी गढ़वाल

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