शक्तिपीठ गोबिन्दपुर सिंघाड़ा वाली मैया के दरबार में बिहार के दर्जनों जिले से आते है लाखों श्रद्धालु

बिहार:( हाजीपुर)वैशाली जिले के महुआ थाना से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित शक्तिपीठ गोविंदपुर सिंघाड़ा वाली मैया के दरबार में पूरे बिहार के विभिन्न जिलों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।अपनी अपनी मुराद लेकर मां की दरबार पहुंच मां की मन्नत माँगती है ।और सच्चे मन से मांगे मुराद को भी पूरा करती है। गोविन्दपुर वाली मइया,लगभग दो सौ वर्षों से होती आ रही पूजा में माता के महिमा की कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन पूरे संपूर्ण विधि विधान से नियत समय पर सभी पूजन कार्य के संपन्न होने से माता खुश रहती हैं।
पूजा की शुरुआत कैसे हुई, इस संबंध में मेला आयोजक सोहन सिंह एवं मोहन सिंह बताते हैं, कि लगभग दो सौ पूर्व उनके महरौर वंश के पूर्वज राधाजीवन सिंह को सपने में मां भगवती ने उक्त स्थान पर मंदिर बनाकर पूजा-अर्चना करने का आदेश दिया,आदेश का पालन करते हुए राधाजीवन सिंह ने यहां मंदिर बनवा कर पूजा की शुरुआत की..साथ ही यहाँ माँ की शक्ति का कहानी को लेकर बुजुर्ग लोग कहानी कहते नही थकते।
– गोविंदपुर सिंघाड़ा वाली इस मईया के बारे में ऐसी मान्यता है ,कि जो भक्त सच्चे दिल से माता के दरबार में पहुंच, जो भी मांगता है, माता उसको मुराद पूर्ण करती हैं।
पूजन विधि एवं मूर्ति की विशेषता है की य पूजा के लिए बनायी जाने वाली मूर्ति की विशेषता है कि यहां सैकड़ों वर्षों से एक ही आकृति की जीवंत मूर्ति बनायी जाती है। इतना ही नहीं मूर्ति बनाने वाले कारीगर स्थानीय ग्रामीण बैजू पंडित एवं उनके खानदान के लोग ही कई दशक से बनाते आ रहे है। यहां पंचमी की रात्रि में दो बकरों की बलि के साथ ही माता का पट आम श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया जाता है तथा अगले दिन से बलि सहित अन्य पूजन कार्य नियत समयानुसार संपन्न होते हैं। गोबिंदपुर सिंघारा मेले में पहुंचने लिए वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर से सड़क द्वारा महुआ बाजार के एवं वहां से आठ किलोमीटर दूर पुर्व महुआ – ताजपुर सड़क मार्ग एवं जन्दाहा मार्ग के बीचों-बीच स्थित माता का भव्य मंदिर है।
शक्तिपीठ गोबिन्दपुर सिंघाड़ा में सैंकड़ो वर्षों से विधी-विधान के साथ मां की पूजा अर्चना होते आरही है। मनोकामना सिद्धि के रूप में इस जिले में ही नहीं कई जिलों में चर्चित इस स्थान पर दूसरे प्रदेश के भी लाखों लोग मां के दरबार में आकर प्रति वर्ष पूजा अर्चना करते हैं। तथा अपनी मनोकामनाऐं पूर्ण होने पर बलि चढ़ाते हैं।यहां पंचमी के दिन ही मां का पट खुल जाता है, और बलि देने का सिलसिला शुरू हो जाता है।यहां पंचमी से दशमी तक भव्य मेला लगता है।यहां सदियों से पंचमी के ही दिन माँ का पट खोलने व बलि देने की परंपरा चली आरही है, जो आज भी कायम है।
पूजा के लिए बनाए गये मंडप के उपरी हिस्से में ब्राह्मण विष्णु महेश की प्रतिमा, इसके मध्य भाग में सरस्वती लक्ष्मी गणेश की प्रतिमा तथा नीचे के भाग में कार्तिक एवं भष्मासुर तथा प्रतिमा के मध्य में मां दुर्गा की सुर्ख लाल रंग मज भव्य प्रतिमा स्थापित किए जाते हैं। कलाकारों द्वारा निर्मित प्रतिमा में चतुर्थी कज मध्य रात्रि में सात छोटे छोटे प्रतिमा नेत्र संचार मि जाती है।मां दुर्गा का नेत्र संस्कार पंचमी के दिन की जाती है। नेत्र संस्कार से पूर्व छप्पन प्रकार के व्यंजनों का भोग , मछली के प्रसाद के बाद दो बकरों कि बलि दी जाती है।उसके बाद मां का पट्ट आम श्रद्धालु भक्तों के लिये खोल दिया जाता है।सप्तमी को मां की पूजा अर्चना केलिऐ जोड़ा बेल फोरने कि परंपरा है जो पूर्णतः बैंड बाजा के साथ श्रद्धलुभक्त बेल तोड़कर लाते हैं और मंदिर में लाकर पुजा अर्चना की जाती है अष्टमी में निशा पूजा एवं नवमी को रात्रि में जागरण के बाद तरैला मन में कलश विसर्जन की जाती है तथा दशमी को वाया नदी के किनारे सिंघाड़ा बुजुर्ग गांव स्थित नरसिंह स्थान में मां की अंतिम पूजा अर्चना के बाद मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, जिसमें लाखों लोग भाग लेते हैं।
पंचमी को बलि प्रारंभ होने के बाद मां की पट्ट खुलने के साथ ही नवमी तक हजारों बकरों की बलि श्रद्धालु भक्तों के द्वारा चढ़ाई जाती है। यह सिलसिला साल में तीन बार श्रवण भादो एंव चैत माह को छोड़कर नौ माह तक हर सोमवार एवं शुक्रवार को मां के दरबार में लोग बलि चढ़ाते हैं।मां के स्वप्न के बाद लीलकु सिंह द्वारा विधि-विधान के साथ प्रारम्भ की गई पूजा अर्चना अभी तक पूर्व की परंपरा के अनुसार होती रही है।इस में किसी भी तरह से परिवर्तन होने पर इसे अशुभ माना जाता है। फलतः कोई परिवर्तन आज तक नहीं कि गयी है।स्तानीय सोहन सिंह, प्रो0रघुबंश प्रसाद सिंह, बलराम सिंह, अभिषेक शुक्ला, धीरेंद्र सिंह, हरेराम सिंह आदि ने बताया कि दंत कथाओं के अनुसार एक महात्मा बलि प्रथा बंद करने की जिद पर बलि प्रदान करने वाली जगह पर बैठ गए। फलतः एक दिन जब मां जो बलि नहीं दी गयी तो माँ का प्रतिमा जो दक्षिण की ओर था वह उत्तर की ओर घूम गया। इसके बाद महात्मा ने क्षमा मांगी फिर बलि प्रदान होने के बाद स्वतः प्रतिमा अपनी जगह आगयी।

-नसीम रब्बानी पटना बिहार

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